Thursday, July 16, 2009

महलों में रहने वालों को झोपडियां नहीं दिखतीं

महानायक परेशान हैं। मुम्बई में उनके घर और दफ्तर में पानी घुस गया। उन्हें अपने सामान की चिंता हो गयी। अपने बेडरूम की छत से रिसते पानी को देखकर तो वे व्याकुल ही हो गए। उन्होंने अपनी यह व्यथा अपने ब्लॉग में बड़े दुखी मन से व्यक्त की -

'प्रतीक्षा जलमग्न हो गया है। बाहर भी सड़क पर कमर तक पानी जमा है और ऊपर थोड़ी ऊंचाई पर बने लॉन में भी पानी भर गया है। बारिश का पानी घर में घुसने का खतरा पैदा हो गया है। मैं जब अपने फर्नीचर और अन्य चीजों को ऊंचाई वाली जगह पर ले जाने की तैयारी कर रहा था, तभी सड़क का पानी पहली सीढ़ी तक पहुंच गया। 'पानी रिसेप्शन इलाके तक पहुंच गया तो कर्मचारी नंगे पैर अपनी पैंट ऊपर करके नालियों को साफ करने लगे, ताकि उनमें से होकर पानी बिना किसी बाधा के बह जाए, लेकिन पानी बहकर कहां जाता। सड़क पर तो पहले से ही कमर तक पानी भरा था, इसलिए वो सारा लौट कर आ गया। 'सब तरफ अव्यवस्था है। सब जगह समुद्र बना हुआ है। पास ही में स्थित कार्यालय जनक में कर्मचारी गेट से पेड़ पर चढऩे के लिए तैयार हैं। पानी अंदर घुस गया है और भूतल पर कोई काम नहीं किया जा सकता। जलसा में अपेक्षाकृत कम पानी भरा है। उसके सामने का रास्ता स्विमिंग पूल बना हुआ है, लेकिन बेसमेंट सूखा है। जलसा में छत पर कोलतार से सुरक्षा के बाद भी बेड रूम में पानी लीक कर रहा है। मैंने अपने कर्मचारियों को कहा है कि वे बारिश के पानी को बाल्टियों में जमा कर लें, ताकि अगर बिजली चली जाए और पंप न चलें तो पानी का उपयोग किया जा सके।'

बिग बी की परेशानी जायज है। मुम्बई की जालिम बरसात जब बरसती है तो हर तरफ पानी-पानी कर देती है। मुम्बईकरों की आंखों में पानी आ जाता है। जाहिर है, जब पानी बिग बी के घर में घुस गया, तो परेशान होने की बात ही थी। अपने सामान के खराब होने, दफ्तर में पानी घुसने और छत टपकने पर भला कौन विचलित नहीं हो जाएगा? मगर क्या महानायक ने मुम्बई के उन लाखों आम लोगों की कोई फिक्र की, जो उनकी फिल्में देखने के लिए थियेटरों में उमड़ पड़ते हैं? ये लोग बारिश के कारण रास्तों में अटक गए। घंटों अटके रहे। कुछ अपने दफ्तर नहीं पहुंच पाए। दफ्तर पहुंचे, तो घर नहीं पहुंच पाए। काफी लोग घरों में पानी भरने पर सिर पर सामान उठाये घंटों खड़े रहे। कुछ की जमापूंजी पानी में खराब हो गयी। कुल मिलाकर, पानी ने मुम्बईकरों की नाक में दम कर दिया। पर महानायक को सिर्फ अपनी परेशानी दिखी। काश, उन्होंने सिस्टम की विफलता पर भी कुछ कहा होता! काश अपने ब्लॉग से उन्होंने आम आदमी की परेशानी दूर करने के लिए आवाज उठायी होती!
पर वे ऐसा नहीं करेंगे। महलों में रहने वालों को झोपडिय़ां नहीं दिखतीं।
हालांकि अपनी व्यथा लेकर बिग बी ब्लॉग पर फिर भी आते रहेंगे!

Monday, April 20, 2009

विरोध की अनूठी पहल

'हम तो नहीं सुधरेंगे।'
'भाड़ में जाए लोकतंत्र।'
'हमने जनता का ठेका नहीं ले रखा है।'

इस बार के लोकसभा चुनाव में ऐसा ही कुछ सामने आ रहा है। विभिन्न पार्टियों और उनके प्रमुख नेताओं को अगर अपने मन की बात बोलने का मौका मिले, तो वे शायद ऐसा ही कुछ कहेंगे।
आखिर दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र इस गति को कैसे प्राप्त हो गया? कैसे आजादी के 60 साल बाद ही 'जनसेवकों' की यह स्थिति हो गयी? इसका जिम्मेदार कौन है? ये नेता खुद? या फिर जनता जनार्दन? भई जनता क्यों? वो इन्हें चुनकर भेजती है, इसलिए? यह तो लम्बी बहस के मुद्दे हैं। पर फिलहाल जरा इस पर विचार किया जाये कि प्रधानमंत्री पद के दो दावेदार मनमोहन सिंह और लालकृष्ण आडवाणी किसी दीगर मुद्दे के अभाव में एक-दूसरे की ताकत को ही मुद्दा बनाये हुए हैं। गोया यह किसी गली-मोहल्ले का 'भाई' तय करने का मुकाबला हो।
इस परिप्रेक्ष्य में जरा कुछ महीने पहले अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव पर नजर डालें। बराक ओबामा और जॉन मैकेन के बीच हुई 'दोस्ताना बहसों' को याद करें। क्या ऐसी पारदर्शी और पेशेवर रुख की राजनीति भारत में संभव है? नहीं।
और इसीलिए अब हमारे इन नेताओं पर जूते-चप्पल चल रहे हैं। और इन्हें इसकी जरा भी शर्म नहीं।
क्या इन बेशर्मों को कोई सबक नहीं सिखाया जा सकता? जरूर सिखाया जा सकता है। उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिले में मोदीनगर इलाके के करीब 40 गांवों के एक लाख से ज्यादा मतदाताओं ने इन्हें सबक सिखाने का बीड़ा उठाया है। उन्होंने इस चुनाव में किसी को भी वोट न देने का फैसला किया है। लेकिन वे घर बैठकर अपना वोट जाया नहीं करेंगे। मतदान के दिन वे पोलिंग बूथ तक जाएंगे और सभी उम्मीदवारों को नकार देने के अपने अधिकार का इस्तेमाल करेंगे। भारतीय लोकतंत्र में एक साथ इतनी बड़ी संख्या में 'राइट टू नो वोट' का इस्तेमाल करने का यह पहला मामला होगा।
मोदीनगर इलाके के निवाड़ी, भनेड़ा, खिंदौड़ा, झलावा, रसूलपुर सहित करीब 40 गांवों में से 26 गांव बागपत संसदीय क्षेत्र और 14 गांव गाजियाबाद संसदीय क्षेत्र में आते हैं। इन गांवों से गुजरती एक सड़क की दुर्दशा से गांव वाले बहुत त्रस्त हैं। इसीलिए उन्होंने लोकसभा चुनाव के बहिष्कार का फैसला कर लिया। अब तक किसी भी उम्मीदवार को उन्होंने इलाके में घुसने नहीं दिया है। यूथ फॉर इक्वेलिटी (वाईएफई) की पहल पर अब ये गांव वाले वोट डालने जाएंगे, लेकिन सभी उम्मीदवारों को नकार देंगे।
राजनीतिक अकर्मण्यता को नकारने की यह पहल शायद कुछ रंग लाये! वैसे विरोध दर्ज कराने की यह पहल है अनूठी। अगर यह परीक्षण सफल रहा, तो आने वाले समय में इसके दूरगामी परिणाम होंगे।
... हालांकि इसमें वक्त लगेगा।

  • ऐसे होगा यह
    कंडक्ट ऑफ इलेक्शंस रूल 1961 के नियम 49 ओ के तहत अगर मतदाता को अपने इलाके से चुनाव लड़ रहे उम्मीदवार में से कोई भी पसंद नहीं है तो वह पोलिंग बूथ पर जाकर सभी उम्मीदवारों को नकार सकता है। इसके लिए पहले उंगली में इंक लगवानी होगी और वहां मौजूद अधिकारी से 17 ए फॉर्म लेकर उस पर या फिर रजिस्टर पर यह दर्ज करना होगा कि उसे इनमें से किसी भी उम्मीदवार को वोट नहीं देना है। इससे यह फायदा होगा कि आपके नाम पर कोई बोगस वोट नहीं कर पाएगा और विरोध भी दर्ज हो जाएगा।

Sunday, April 19, 2009

हालांकि

ये पांच साल बाद आये हैं
एक वोट की भीख मांगने
इस बीच इनका चेहरा नहीं दिखा
इनका चेहरा गौर से देखो जरा
ये पांच साल बाद आये हैं.


इन्होंने सेठ से नोट लिया, वोट भी
इन्होंने गरीब को नोट दिया
और बेशर्मी से वोट की भीख मांगी
वोट के लिए अपना कुर्ता फैला दिया
ये पांच साल बाद आये हैं.


जब देश बाढ़ में डूबा था
ये विदेश में इलाज करा रहे थे
जब देश सूखे में झुलसा था
ये पहाड़ पर मौज मना रहे थे
ये पांच साल बाद आये हैं.


किसी की आबरू की इन्हें फिक्र नहीं
इनकी ही आबरू है सबसे बड़ी
प्रतिभाशाली नौजवान भटक रहे हैं
इनके बेटे फॉरेन में पढ़ रहे हैं
ये पांच साल बाद आये हैं.


इस बार भी ये वोट लेने आये हैं
सब भूलकर आप इन्हें वोट देंगे
इनकी खादी उजली, देह मोटी होगी
पांच साल तक ये नजर नहीं आयेंगे
पांच साल बाद फिर वोट मांगने आयेंगे.


हालांकि
ये इस लायक हैं नहीं
फिर भी ये वोट पायेंगे.